हरीश रावत
24 दिसंबर, 2023 को देहरादून में एक स्वस्फूरित बहन और भाइयों का बड़ा सा हुजूम उमड़ा। मैं इस हुजूम के मकसद को देखकर संख्या बल को गौण समझता हूं, फिर भी लोगों का कयास है कि सब मिलाकर 8-10 हजार लोग अपने-2 संसाधनों से, अपने बैनर व झंडे, अपने नारे, अपना खाना, अपना वाहन, सब कुछ अपना लेकर जुटे। केवल एक दर्द उन सबमें बड़ा आम था, वह था कि कहीं ऐसा न हो हमको हमारी मिट्टी से ही अलग कर दिया जाए! हमारी थाती ही हमारे लिए पराई न हो जाए। मैं उन सब लोगों को जिन्होंने इस जुड़ाव के लिए आवाह्न किया बहुत-बहुत बधाई देता हूं। हां, जितनी कसक उनकी आवाज में थी, उनके तारों में थी, जो दर्द उनके शब्दों में था, वह दर्द दो ऐसी लाइनों से गूंजायमान हो रहा था जिनको राज्य बनने के 23 साल बाद हमारी इच्छा सुनने की नहीं थी। हम चाहते थे उसका जो संशोधित सर्व स्वीकार्य रूप है हम उस रूप में उसको सुनें, हम चाहते थे कि वह शब्द हों ष्बोल उत्तराखंडी हल्ला बोलष् ! पहाड़ को तो हमने राज्य आंदोलन के दिनों में ही एक समग्र हिमालयी पहचान जिसको उत्तराखंडी कहा गया उसमें समाहित कर दिया है और फिर दर्द केवल पहाड़ों में ही नहीं है, जिन लोगों का हुजूम उमड़ा था वह दर्द कहीं कुछ ज्यादा तो कहीं थोड़ा कम, मगर पूरे उत्तराखंड का शकल उत्तराखंडी दर्द है जिस तरीके से पहाड़ों की बेटी गंगा और यमुना ने पहाड़ से निकल कर, आगे बढ़कर, बढ़ते-बढ़ते गंगा-जमुनी संस्कृति को परवान चढ़ाने का काम किया। राज्य के आन्दोलनकारियों ने भी इन गांवों से निकल कर झट-पटाते दर्द के साथ, कराहते हुये अपनी उत्तराखंडी पहचान को आगे बढ़ाया, साकार किया। मुझे याद है जब केंद्र सरकार ने राज्य का नाम उत्तरांचल कर दिया था। कितना झट-पटाते थे, हममें एक बेचौनी थी, एक व्याकुलता थी, अरे हमारी उत्तराखंडी पहचान मिटा दी! हम कोई काम ऐसा नहीं कर सकते जिससे अब पीछे कदम हटे हैं, अब तो कदम आगे बढ़ने हैं जो उत्तराखंडी पहचान बनी है उस पहचान को साक्षात मूर्तमान रूप में दूसरों के लिए अनुकरणीय उदाहरण बनाना है।
मैंने कहा न यह दर्द गंगा और यमुना के हर मुकाम का दर्द है। यह दर्द यदि उत्तरकाशी, श्रीनगर, देवप्रयाग का दर्द है तो यह दर्द उतने ही साक्षात रूप में मुनिकीरेती, श्यामपुर, कांगड़ी, भोगपुर और बालवाली की खोह में जो उत्तराखंडी संस्कृति है उसका भी दर्द है। उसी प्रकार से यमुना के हर खोह में, हर मुकाम पर एक उत्तराखंडी संस्कृति है जो हमारी साझी संस्कृति के रूप में हम सबको गौरवान्वित करती है। जब जमीन नहीं रहेगी तो संस्कृति कहां से रहेगी, माटी में ही तो चीजें अंकुरित होती हैं, जब माटी नहीं रहेगी तो अंकुरण कहां से होगा? जब भूमि नहीं रहेगी तो भूमिपुत्र कहां से रहेंगे? उनके साथ लिपटी हुई उनकी सांस्कृतिक विरासतें कहां से रहेंगी? उनकी आध्यात्मिक विरासतें कहां से रहेंगी? आज हम सब लोग उन विरासतों की रक्षा के लिए चिंतित हैं। अब चिंता इस बात को लेकर के हैं कि इस उत्तराखंडी पहचान को, सांस्कृतिक धरोहरों से लिपटी हुई पहचान को, इस मिट्टी के सत्व की रक्षा कैसे की जाएगी, इसके लिए हमें सारे उत्तराखंड को एकजुट रखना है! हम किसी को दोष नहीं देना चाहते हैं, जो लोग राज्य मांग रहे थे उनके मन में राज्य का खाका बिल्कुल साफ था। इसलिए तो आधी रोटी खाएंगे, गुड़-चना खाएंगे, कोदो मडुआ खाएंगे, टाट-बोरा बिछाएंगे, राज्य चलाएंगे, उनके नारे उनकी दीर्घकालिक सोच को स्पष्ट करते थे। हम ही कहीं भटक गए दास्तां कहते-कहते, बड़ी गौर से सुन रहा था जमाना, जब लोग समझ रहे थे कि हिमालय की गोद में अपनी गंगा-जमुनी हिमालयी संस्कृति, तप-तपस्या और बलिदान की संस्कृति को आगे बढ़ाता हुआ एक राज्य अस्तित्व में आया है तो हम भौतिकता के चकाचौंध में कुछ ऐसे फंस गये कि रास्ता कहां से कट गया, तरक्की के शॉर्टकट के चक्कर में हम ऐसे फेर में फंस गए, न शॉर्ट ही रहा और न गंतव्य ही रहा। यदि ऐसा नहीं होता, हम अपनी भूमि के लिए चिंतित नहीं होते, अपने सत्व के लिए चिंतित नहीं होते तो राजनीतिक दल हिमालय की तर्ज पर भू-कानून की बात क्यों करते? बल्कि कांग्रेस जैसे राजनीतिक दल ने तो उनसे भी बेहतर कल्पना के भू-कानून की बात कही। जब राज्य में औद्योगिक निवेश आ रहा था, टैक्स हॉलीडे स्कीम जिसको यूपीए सरकार लेकर के आई थी उसके सद्परिणाम स्वरूप में जब विशेष दर्जा प्राप्त हिमालयी राज्यों के मैदानी भू-भागों में तेजी से औद्योगीकरण होने लगा तो उस समय भी लोग सचेष्ट और चिंतित थे और लोगों ने कहा कि औद्योगिकरण चाहिए। मगर उसमें पहला हक उत्तराखंड के बेटे और बेटियों का होना चाहिए। इसी भावना को लेकर लोगों ने मांग की कि यहां लग रहे उद्योगों में 70 प्रतिशत स्थान स्थानीय लड़के-लड़कियों के लिए आरक्षित होने चाहिए। प्राइवेट नौकरियों में 70 प्रतिशत पद आरक्षित करने वाला पहला राज्य उत्तराखंड था, अब तो यह प्रायः सभी राज्यों की मांग हो गई है।
हम कुछ मामलों में हिमाचल से भी आगे खड़े हो गए थे और हमारे ही विधायक गणों आदि सबने हमारी सरकार को इस बात के लिए बाध्य किया है कि हम 500 गज से ज्यादा का भूखंड खरीदना, किसी गैर उत्तराखंडी के लिए जो 1985 से पहले उत्तराखंड में नहीं आ गया है उसके लिए उसको वर्जित बना दें और ऐसा नहीं था कि किसी भावना में यह निर्णय लिया गया था, उस निर्णय की पुष्टि जो दूसरी निर्वाचित सरकार आई थी उसने भी किये, उन्होंने उसको घटा करके ढाई सौ गज कर दिया। एक के बाद एक निर्वाचित सरकारों ने भूमि को उत्तराखंड के लिए दुर्लभ वरदान माना और उसके संरक्षण को अतना कर्तव्य मानकर इस तरीके की अधिसूचनाओं जारी की। कहीं न कहीं पहले दशक के उत्तरार्ध में हम भौतिकवाद की तरफ तेजी से आगे बढ़ने लगे। एम्बेसडर कार, मारुति और जीपों के युग से हम एक्सयूवी कल्चर की तरफ बढ़ने लगे। मुझे मालूम नहीं कब किस गैर देहरादून वाले निर्वाचित प्रतिनिधि ने देहरादून में पहला भूखंड खरीदा, यह खोज का विषय होना चाहिए। लेकिन धीरे-धीरे जनप्रतिनिधि, सांसद, विधायकों से ब्लॉक प्रमुख और फिर देखा-देखी मझौले व छोटे स्तर के अधिकारी, पूर्व सैनिक गण, फिर तो कारवां बन गया और लोग चलते गए, कहां जा रहे हैं इसका पता ही नहीं रहा! अच्छे छरहरे स्फूर्तिवान, गतिशील गांवों से हम भुतहा गांवों की तरफ कब हमारे कदम बड़े उसका कभी समय मिलेगा तो विश्लेषण अवश्य करूंगा। दूसरे दशक में दैवीय आपदा ने हमको मिलकर के स्थितियों का सामना करना तो सिखाया, जितने कम समय में भयंकर दैवीय आपदा से हम उभरे वह अकल्पनीय है और यह तभी संभव हुआ जब सब साथ खड़े हुये। लेकिन दैवीय आपदाएं आती क्यों हैं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमारे भटकते कदम प्रकृति और देवताओं को भी नाराज कर रहे हों! दैवीय आपदा की चेतावनियां भी अंधाधुंध तथाकथित तरक्की की तरफ बढ़ते हुए हमारे कदमों से पैदा हो रहे खतरों से हमको सावधान नहीं कर पाए। आज उसी का परिणाम है कि हिमालय अब और अत्यधिक संवेदनशील हो उठा है।
एक बार अल्मोड़ा में एक विचार गोष्ठी में श्रीमती इंदिरा गांधी जी भी आई थी और प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर पंडित कमलापति त्रिपाठी भी पधारे थे। पंडित कमलापति त्रिपाठी जी ने अपने भाषण में कहा कि हमारी मदद कीजिए, केंद्र को मदद करनी चाहिए, क्योंकि पहाड़ हमारे ऊपर डेवलपमेंट के लिए बोझ है। आमदनी नहीं है मगर खर्चे बहुत हैं, वह एक यथार्थ था लेकिन श्रीमती इन्दिरा जी ने जो इसका उत्तर दिया, वह उस समय के नेतृत्व की हिमालय के प्रति संवेदनशीलता को दिग्दर्शित करने के लिए पर्याप्त था। उन्होंने कहा हिमालय हमारे ऊपर बोझ नहीं हैं, यह पहाड़ हमारा बोझ उठाये हुये हैं। ये हमारे पर्यावरण के संरक्षक हैं और श्रीमती इंदिरा जी के यही शब्द थे जो इन्होंने सातवें, आठवें, नवें, दसवें, ग्यारहवें दशक तक केंद्र और राज्य सरकारों का हिमालय को लेकर के मार्गदर्शन किया। मैं किसी को दोष नहीं देना चाहता हूं लेकिन कुछ हटकर के कर दिखाने की चाह में पिछले कुछ वर्षों से कुछ ऐसे कदम उठाए जा रहे हैं जिसमें पर्यावरणीय संवेदनशीलता पर प्रहार कर रहे हैं। हर घटना व सोपान को प्रबंधकीय कला से परोसने की चाहत में स्थितियों को और विकट बना दिया है। एक व्यक्ति मुख्यमंत्री के तौर पर इतनी संवेदनशील हो सकते हैं कि वह गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित कर दें और 25 हजार करोड़ रूपया वहां के ढांचा के विकास में खर्च करने की घोषणा कर दें। वहीं मुख्यमंत्री भराड़ीसैंण में जो जमीन खरीदने पर पाबंदी हमने लगाई थी उसके नोटिफिकेशन को डिनोटिफाड कर देते हैं और कुजा एक्ट में कुछ ऐसे परिवर्तन लाते हैं जिसके जरिए उत्तराखंड में जमीन खरीदना उत्तर प्रदेश से भी ज्यादा सरल हो जाता है और एक डिटरेंट/प्रतिबंध जो एक रोक का काम कर सकता था उसको भी हटा देते हैं, और वह डिटरेंट था कि यदि आवंटित भूमि को उद्यमी उद्योग विशेष के लिए प्रयोग में नहीं लायेगा तो वह एक समय बाद वह जमीन वापस राज्य सरकार में निहित हो जायेगी जिसका सहारा लेकर आज आईडीपीएल की जमीन वन विभाग में वापस आ गई है। उस रूप को हटाने का असर यह पड़ा कि अब जमीन किसी बहाने खरीद लो, किसी भी इन्वेस्टमेंट के नाम पर खरीद लो कल मर्जी न आए तो आप लैंड यूज बदल सकते हैं। उत्तराखंड की भूमि जो जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ ऊंचे हिमालय क्षेत्रों में और अधिक दुर्लभतम व मूल्यवान होती जा रही है। अपनी सांस्कृतिक विरासत के साथ जो प्राकृतिक रियासत हैं उसके कारण दुर्लभतम होती जा रही हैं उसको खरीदने का धन्ना साहबों को एक बेहतर अवसर मिल गया है, किसी ने मुझे जानकारी दी है! यह बात कितनी तथ्यात्मक है अभी मैं उसको गूगल की सहायता से सर्च कर रहा हूं। पिछले 5 सालों के अंदर सर्वाधिक जमीनों की रजिस्ट्रियां देहरादून और हल्द्वानी के बाद यदि कहीं हुई हैं तो वो अल्मोड़ा व पौड़ी जनपद हैं। तकलीफ की बात यह है कि जितने ऐसे दुर्लभतम प्रकृति प्रदत्त स्थल हैं जहां जमीन बेची नहीं जा सकती है, सोचा भी नहीं जाना चाहिए वहां की जमीनें भी बिक रही हैं और एक आंकड़े के अनुसार पिछले 5 वर्षों के अंदर 1 लाख से ज्यादा ऐसी भू रजिस्ट्रियां विभिन्न जिलों में अस्तित्व में आई हैं। यह लोग कौन हैं जो भाग 2 के रजिस्टर से भी ऊपर हैं? कहां से आए हैं, क्या मकसद है? किसी को कुछ मालूम नहीं है! जिलाधिकारियों के पास कोई ऐसी सूची नहीं है इसीलिये समाचार पत्रों में जब बार बालाओं की बात आती है, कसीनो की बात सामने आती है, वनंतरा रिजॉर्ट तो आम बात हो गई है, तो मन को बहुत चीजें कचोटती हैं। ऐसा लगता है जैसे बहुत सारे कीड़े-मकोड़े हमारे शरीर में रैंगने लग गए हों, क्योंकि हम अपने माटी रूपी शरीर के साथ क्या कर रहे हैं, अपने अस्तित्व के साथ हम क्या कर रहे हैं, उसका हमको कोई ज्ञान ही नहीं है।
पूर्व केन्द्रीय मंत्री और उत्तराखण्ड के पूर्व सीएम हरीश रावत जी के फेसबुक से साभार